वन विभाग को न भूमि मिली, न पेड़ बच सके -भारी विरोध के बावजूद मुड़ागाँव के बाद सराई टोला का जंगल साफ, गारे-पेलमा जंगल में चल रहा अडानी का जंगलराज..!

क्या केवल उद्योगों की हितैषी होती हैं सरकारें..?
सवालों के घेरे में कॉंग्रेस के शासनकाल में वनभूमि का हस्तांतरण तो भाजपा के राज में जंगल की कटाई..
अनुमति कम कटाई ज्यादा…किसका नुकसान किसका फायदा..
पर्यावरण बचाने का नारा सिर्फ़ दिखावे का...
तमनार/ रायगढ़ (छत्तीसगढ़)।
महाजेनको कंपनी, जिसके लिए अडानी समूह खनन कार्य करने वाला है, को गारे-पेलमा सेक्टर 2 के कक्ष क्रमांक 740 में स्थित लगभग 217 हेक्टेयर घने वन क्षेत्र को खनन के लिए हस्तांतरित किया गया है। लेकिन इस हस्तांतरण की शर्त के तहत जो क्षतिपूर्ति वनरोपण की जानी थी, वह अब तक केवल कागज़ों तक ही सीमित है। रायगढ़ जिले के तमनार ब्लॉक में अडानी कंपनी द्वारा कोल ब्लॉक आवंटन के नाम पर हजारों पेड़ों की कटाई की जा रही है। यह मामला मुड़ा गांव और आसपास के 14 गांवों से जुड़ा है। ग्रामीणों ने पेड़ कटाई के खिलाफ हाई कोर्ट में याचिका दायर की है, लेकिन सुनवाई से पहले ही पुलिस की पहरेदारी में पेड़ों की कटाई शुरू कर दी गई है।
लैलूंगा विधायक विद्यावती सिदार के नेतृत्व में मूडागांव के ग्रामीण बैठे धरने पर ताकि जंगल कटाई और लकड़ी उठाने पर लगाई रोक लगाई जा सके।विपक्षी कांग्रेस इस पूरे मामले में सत्तासीन भाजपा के खिलाफ़ आक्रामक रवैय्या अपनाए हुए है लेकिन जानकारों का कहना है कि जो बीज उनके कार्यकाल में बोया गया था उसकी परिणति स्वरूप उपजे हालात में विरोध प्रदर्शन दिखावे की राजनीति मात्र है।
वन विभाग को दी गई भूमि पर अब तक कब्ज़ा नहीं..
क्षतिपूर्ति स्वरूप महाजेनको द्वारा ग्राम नटवरपुर में राजस्व भूमि उपलब्ध कराई गई थी, किंतु विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार, अब तक वन विभाग उस भूमि पर भौतिक कब्ज़ा नहीं पा सका है। इसके बावजूद, गारे-पेलमा क्षेत्र में पेड़ों की कटाई आरंभ कर दी गई है,
क्या केवल कागज़ी कार्रवाई से जंगल का नुकसान जायज़ है?
विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक क्षतिपूर्ति हेतु दी गई भूमि पर सफल वृक्षारोपण न हो जाए, और वह वन विभाग के आधिपत्य में न आ जाए, तब तक किसी भी वन भूमि की कटाई करना Forest (Conservation) Act, 1980 और Compensatory Afforestation Fund Act, 2016 का उल्लंघन माना जाएगा।
“कंपनी को फायदा, जंगल का विनाश”: स्थानीय ग्रामीणों की चिंता
स्थानीय निवासी और सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि यह प्रक्रिया पूरी तरह से एकतरफा है — न ग्रामसभा की सहमति ली गई, न पारदर्शिता बरती गई, और न ही भविष्य में उस क्षतिपूर्ति भूमि की सुरक्षा या जैव विविधता सुनिश्चित की गई है।
“पेड़ कटने से पहले पेड़ लगना चाहिए था”
एक पर्यावरणविद् ने कहा, “यह एक गंभीर मामला है। जब जंगल काटने की अनुमति दी जाती है, तो यह शर्त होती है कि पहले वैकल्पिक भूमि पर वृक्षारोपण हो और वह वन विभाग के अधिकार में आ जाए। यहां तो पेड़ कट रहे हैं लेकिन ‘बदले के पेड़’ आज तक लगाए भी नहीं गए। यह पर्यावरणीय अन्याय है।”
मांग उठी — जांच हो, कटाई रोकी जाए
पर्यावरण कार्यकर्ता अब इस पूरे प्रकरण की स्वतंत्र जांच और वन कटाई पर तात्कालिक रोक की मांग कर रहे हैं। साथ ही, यह मुद्दा राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के समक्ष भी उठाया जा सकता है।
यदि ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पूरे छत्तीसगढ़ के जंगलों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।

