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कोन्दा भैरा के गोठ – व्यंग्यकार सुशील भोले…

तुंहर इहाँ के बहुरिया मन आजकाल के नवा चलन वाला उपास-धास रहिथे नहीं जी भैरा?
-कइसन ढंग के नवा चलन वाला जी कोंदा?
-अरे.. काली सिनेमा उनिमा वाले मन असन करवाचौथ के नइ रिहिन जी.
-टार बुजा ल.. कइसे गोठियाथस तैं ह.. अरे भई हमर इहाँ तो एकर ले बढ़ के तीजा के उपास रहिथे तब ए सब नवा-नवा चोचला काबर?
-हमर इहाँ के नेवरिन मन तो जहाँ कोनो ल कुछू नवा चलागन म देखिन तहाँ उहू मन उम्हियाय परथें.
-ए सब हीनता अउ छोटे पन के चिन्हारी आय. जे मन अपन आप ल छोटे अउ पिछड़े समझथें ना उही मन दूसर के पिछलग्गू बने म अपन गरब समझथें. फेर मोर तो कहना हे संगी- जिहां तक सम्मान के बात हे, त सबो के संस्कृति अउ परंपरा के सम्मान करना चाही, फेर जीना चाही सिरिफ अपन संस्कृति ल.. काबर ते सिरिफ अपन संस्कृति ही ह आत्मगौरव के बोध कराथे, जबकि दूसर के संस्कृति ह गुलामी के रद्दा देखाथे.

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