कोन्दा भैरा के गोठ – व्यंग्यकार सुशील भोले..

–पितर जोहार जी भैरा.
-जोहार जी कोंदा. तुंहर इहाँ पितर मिलाथौ नहीं जी.
-हाॅं मिलाथन ना.. इही बहाना पुरखा मनला सुरता-जोहार कर लेथन, नइते काम-बुता के चेत म कहाँ ककरो चेत रहिथे.
-हव जी सिरतोन आय.. फेर कतकों झन मन पितर मिलई ल अन्ते-तन्ते गोठिया के ढोंग अउ आडंबर आदि कहिथें ना.
-ककरो कुछू गोठियाए म का होथे संगी.. हम तो ए मानथन के हमर जे पुरखा मनला मोक्ष या सद्गति मिल गे रहिथे, वो मन अपन परब-तिथि म जरूर आथें अउ हमर श्रद्धा के चढ़ावा झोंकथें घलो.
-हव जी मोरो अइसने मानना हे.. हॉं भई जे मनला देंह छोड़े के तुरते बाद कोनो आने देंह या योनि मिल जाय रहिथे, ते मन भले नइ आवत होहीं, फेर जे मनला जीवन-मरन के फेर ले मुक्ति मिल गे रहिथे, वो मन खंचित आथें. तभे तो कहिथें-
पुरखा मन बिसरय नहीं,
लइका भले बिसर जाथे.
भाव श्रद्धा के झोंके बर,
देवता सही उन सउंहे आथे.