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आग मांगने की परंपरा…

हमारी संस्कृति में आग मांगने की भी एक परंपरा है। हम जब छोटे थे। गांव में रहते थे, तब रोज शाम को हमारे अड़ोस-पड़ोस की पांच-सात महिलाएं हमारे घर छेना (कंडा) लेकर आ जातीं, हमारी दादी के साथ गप्पे लड़ाती, साग-सब्जी की बातें होती, की छोटे-मोटे काम को आपस में सुलटा लेतीं और फिर कंडा या छेना में आग लेकर अपने घर चली जातीं।

जहां तक धर्म और संस्कृति की बात है, तो इसमें इसका एक अलग ही महत्व है। नवरात्र, होली या घर में शादी-व्याह आदि के अवसर पर किसी सिद्ध मंदिर या मांत्रिक से आग लेकर ज्योति या अग्निकुण्ड प्रज्वलित करने की परंपरा है।

इसके पीछे केवल यही भावना होती है कि हम अपने शुभ कार्य एक ऐसे व्यक्ति या स्थल के माध्यम से कर रहे हैं, जिससे यह सुनिश्चित रहे कि उनकी सिद्धी का परिणाम हमारे यहां भी बना रहेगा।

कई लोग इसे अंधविश्वास की श्रेणी में रख सकते हैं। वे यह भी कह सकते हैं, जो लोग स्वयं ही मंत्र सिद्ध किए हैं, उन्हें ऐसा करने की क्या आवश्यकता है? बात सही भी है, जिन लोगों ने स्वयं मंत्रसिद्ध किए हैं, उन्हें किसी अन्य सिद्ध व्यक्ति या स्थल से ऐसे कार्यों या प्रयोजन के लिए आग लाने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि हमें कई अवसरों पर अपनी तर्क शक्ति को एक किनारे रखकर परंपरा को पल्लवित होने का अवसर प्रदान करना चाहिए।

आज आग जलाने के अनेक साधनों का आविष्कार हो चुका है, लेकिन अपनी पड़ोसन से आग मांगकर लाना और इसी बहाने दुख-सुख की बात कर लेने का जो महत्व है वह अद्भुत है।

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