सेवा छुपकर की जाती है, छापकर नहीं – संत विजय कौशल

रायपुर। भगवान केवल इतना चाहते हैं कि जीवन में कोई एक बार यह कह दे कि प्रभु मैं आपका ही हूं, लेकिन मनुष्य यहीं नहीं कर पाता है। संसार में सभी यह समझते रहते हैं कि ये खास है – वो खास है, लेकिन कोई किसी का खास नहीं होता है जब तक नोटों की गड्डी मिलते रहती है खास है, अन्यथा खांसते हुए निकल जाते हैं। नि:स्वार्थ रूप से यदि आपका कोई है तो वह है केवल प्रभु। मरते समय आपका मन कहां हैं, उसके अनुसार उसका अगला जन्म होता है। सेवा छुपकर की जाती है, छापकर नहीं। आज तो सेवा को भी विज्ञापन से बताये जा रहे हैं।
दीनदयाल उपाध्याय आडिटोरियम में आयोजित श्रीराम कथा में संत श्री विजय कौशल महाराज ने कहा कि पहाड़ अहंकार व सागर शोक का प्रतीक है। व्यक्ति दो ही परिस्थितियों में बिगड़ता है एक तो अहंकार आने पर व दूसरा शोक की स्थिति में गम भुलाने के लिए गलत मार्ग का अनुसरण कर लेने पर। जो व्यक्ति अहंकार को दबा दे और शोक को पी जाए वही व्यक्ति जीवन में बुराई से बच सकता है। हम लोगों का स्वभाव है कि अपराध किसी का करते हैं और क्षमा किसी और से मांगते हैं। परिवार का, पड़ोसी का, समाज का अपराध किया और क्षमा मांगने मंदिरों में जाते हैं तो वहां कैसे क्षमा मिलेगा। कोर्ट कचहरी तक बात पहुंची तो वह सजा को कम कर सकते हैं पर क्षमा नहीं दे सकते। इंद्र के पुत्र जयंत का काग बनकर जानकी जी के पैर पर चोट पहुंचाने के अपराध को लेकर प्रसंगवश उन्होने बताया कि जब कहीं पर भी उन्हे प्रभु के बाण से सुरक्षा नहीं मिली तो आखिर में संत नारद जी ने उन्हे रास्ता बताया कि तुम वापस उसी श्रीराम जी के पास जाओ वही तुम्हे माफ करेंगे। इसीलिए तो कहा गया है कि जीवन में संत आ गए तो भगवंत की कृपा हो जाती है।
संत की प्रवृत्ति होती है,वेष नहीं। वेष से तो साधु पहचाने जाते हैं कि कौन से संप्रदाय के हैं। जिसके पास बैठकर दुर्गुण दिख जाए, इच्छा दूर हो जाए, कुछ शुभ, पुण्य करने की लालसा पैदा हो तो समझ लो वह संत हैं। मन आनंदित, पवित्र, प्रसन्न होने लगे हैं जिनके पास बैठकर उनके पास बहाने बनाकर भी बैठने जाओ और जिनके पास बैठने से संसारी चीजों को और संग्रह करने की इच्छा आए, बुरी बातें याद आए तो वहां से बहाने बनाकर दूर चले जाओ। भगवान को सीधे सादे भोले भाले लोग पसंद है छल कपट छिद्र करने वाले नहीं।
मनुष्य ने क्या सोचा है यह बुरा नहीं होता लेकिन मनुष्य के बारे में देवताओं ने क्या निर्णय किया है वे ही जानते है। हमारे यहां देवपूजन की बड़ी महत्ता है, कुछ भी शुभ कार्य करने से पहले देवताओं की पूजा की जाती है, इनसे आर्शीवाद लेते रहिए,अन्यथा इनके हाथ इतने लंबे होते है कि आपको पता ही नहीं चलेगा की गड़बड़ कहां हो रही है। इस विघ्न के कारण ही राजतिलक की सभी तैयारियां धरी की धरी रह गई थी, आरती का थाल सजा का सजा रह गया। जय-जयकार हाहाकार में बदल गया।
वनवासकाल के बीच चित्रकुट में भगवान श्रीराम को वहां अलौकिक समाज मिला। सबसे पहले देवता आए थे और अपना रोना रोने लगे और उन्होंने भगवान का कुशलक्षेम पूछना तक मुनासिब नहीं समझा था। ऋषिमुनि आए अपने तपस्याओं का फल मांगने, भगवान ने सभी को प्रणाम किया और उनको भी उनका फल दिया। एक तीसरा समाज था वनवासियों का जिन्होने भगवान श्रीराम का पूजा-अर्चना करने के बाद फल चढ़ाया,तब लक्ष्मण जी पूछ बैठते हैं इनको फल नहीं चाहिए क्या। भगवान राम ने कहा जो भी हमारे पास आता है कुछ न कुछ मांगता है लेकिन आप लोग कुछ नहीं माग रहे हैं, तब वनवासियों ने कहा हमको तो आप चाहिए,आप मिल गए तो हमें और क्या चाहिए।